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कंकाल-अध्याय -६२

सीकरी की बस्ती से कुछ हटकर के ऊँचे टीले पर फूस का बड़ा-सा छप्पर पड़ा है और नीचे कई चटाइयाँ पड़ी हैं। एक चौकी पर मंगलदेव लेटा हुआ, सवेरे की-छप्पर के नीचे आती हुई-शीतकाल की प्यारी धूप से अपनी पीठ में गर्मी पहुँचा रहा है। आठ-दस मैले-कुचेले लड़के भी उसी टीले के नीचे-ऊपर हैं। कोई मिट्टी बराबर कर रहा है, कोई अपनी पुस्तकों को बैठन में बाँध रहा है। कोई इधर-उधर नये पौधो में पानी दे रहा है, मंगलदेव ने यहाँ भी पाठशाला खोल रखी है। कुछ थोड़े से जाट-गूजरों के लड़के यहाँ पढ़ने आते हैं। मंगल ने बहुत चेष्टा करके उन्हें स्नान करना सिखाया; परन्तु कपड़ों के अभाव ने उनकी मलिनता रख छोड़ी है। कभी-कभी उनके क्रोधपूर्ण झगड़ों से मंगल का मन ऊब जाता है। वे अत्यन्त कठोर और तीव्र स्वभाव के हैं। जिस उत्साह से वृंदावन की पाठशाला चलती थी, वह यहाँ नहीं है। बड़े परिश्रम से उजाड़ देहातों में घूमकर उसने इतने लड़के एकत्र किये हैं। मंगल आज गम्भीर चिन्ता में निमग्न है। वह सोच रहा था-क्या मेरी नियति इतनी कठोर है कि मुझे कभी चैन न लेने देगी। एक निश्छल परोपकारी हृदय लेकर मैंने संसार में प्रवेश किया और चला था भलाई करने। पाठशाला का जीवन छोड़कर मैंने एक भोली-भाली बालिका के उद्धार करने का संकल्प किया, यही सत्संकल्प मेरे जीवन की चक्करदार पगडण्डियों में घूमता-फिरता मुझे कहाँ ले आया। कलंक, पश्चात्ताप और प्रवंचनाओं की कमी नहीं। उस अबला की भलाई करने के लिए जब-जब मैंने पैर बढ़ाया, धक्के खाकर पीछे हटा और उसे ठोकरें लगाईं। यह किसकी अज्ञात प्रेरणा है मेरे दुर्भाग्य की मेरे मन में धर्म का दम्भ था। बड़ा उग्र प्रतिफल मिला। आर्य समाज के प्रति जो मेरी प्रतिकूल सम्मति थी, उसी ने सब कराया। हाँ, मानना पड़ेगा, धर्म-सम्बन्धी उपासना के नियम चाहे जैसे हों, परन्तु सामाजिक परिवर्तन उनके माननीय है। यदि मैं पहले ही समझता! आह! कितनी भूल हुई। मेरी मानसिक दुर्बलता ने मुझे यह चक्कर खिलाया। मिथ्या धर्म का संचय और प्रायश्चित्त, पश्चात्ताप और आत्म-प्रतारणा-क्या समाज और धर्म मुझे इससे भी भीषण दण्ड देता कायर मंगल! तुझे लज्जा नहीं आती? सोचते-सोचते वह उठ खड़ा हुआ और धीरे-धीरे टीले से उतरा। शून्य पथ पर निरुद्देश्य चलने लगा। चिन्ता जब अधिक हो जाती है, जब उसकी शाखा-प्रशाखाएँ इतनी निकलती हैं कि मस्तिक उनके साथ दौड़ने में थक जाता है। किसी विशेष चिंता की वास्तविकता गुरुता लुप्त होकर विचार को यान्त्रिक और चेतना विहीन बना देती है। तब पैरों से चलने में, मस्तिक में विचार करने में कोई विशेष भिन्नता नहीं रह जाती, मंगलदेव की वही अवस्था थी। वह बिना संकल्प के ही बाजार पहुँच गया, तब खरीदने-बेचने वालों की बातचीत केवल भन्नाहट-सी सुनाई पड़ती। वह कुछ समझने में असमर्थ था। सहसा किसी ने उसका हाथ पकड़ कर खींच लिया। उसने क्रोध से उसे खींचने वाले को देखा-लहँगा-कुरता और ओढ़नी में एक गूजरी युवती! दूसरी ओर से एक बैल बड़ी निश्चिन्ता से सींग हिलाता, दौड़ता निकल गया। मंगल ने उस युवती को धन्यवाद देने के लिए मुँह खोला; तब वह चार हाथ आगे निकल गई थी। विचारों में बौखलाये हुए मंगल ने अब पहचाना-यह तो गाला है। वह कई बार उसके झोंपड़े तक जा चुका था। मंगल के हृदय में एक नवीन स्फूर्ति हुई, वह डग बढ़ाकर गाला के पास पहुँच गया और घबराये हुए शब्दों में उसे धन्यवाद दे ही डाला। गाला भौचक्की-सी उसे देखकर हँस पड़ी। अप्रतिभ होकर मंगल ने कहा, 'अरे तो तुम हो गाला!' उसने कहा, 'हाँ, आज सनीचर है न! हम लोग बाजार करने आये हैं।' अब मंगल ने उसके पिता को देखा। मुख पर स्वाभाविक हँसी ले आने की चेष्टा करते हुए मंगल ने कहा, 'आज बड़ा अच्छा दिन है कि आपका यहीं दर्शन हो गया।' नीरसता से बदन ने कहा, 'क्यों, अच्छे तो हो?' 'आप लोगों की कृपा से।' कहकर मंगल ने सिर झुका लिया। बदन बढ़ता चला जाता था और बातें भी करता जाता था। वह एक जगह बिसाती की दुकान पर खड़ा होकर गाला की आवश्यक वस्तुएँ लेने गया। मंगल ने अवसर देखकर कहा, 'आज तो अचानक भेंट हो गयी, समीप ही मेरा आश्रय है, यदि उधर भी चलियेगा तो आपको विश्वास हो जायेगा कि आप लोगों की भिक्षा व्यर्थ नहीं फेकीं जाती।' गाला समीप के कपड़े की दुकान देख रही थी, वृन्दावनी धोती की छींट उसकी आँखों में कुतूहल उत्पन्न कर रही थी। उसकी भोली दृष्टि उस पर से न हटती थी। सहसा बदन ने कहा, 'सूत और कागज ले लिए, किन्तु पिंजड़े तो यहाँ दिखाई नहीं देते, गाला।' 'तो न सही, दूसरे दिन आकर ले लूँगी।' गाला ने कहा; पर वह देख रही थी धोती। बदन ने कहा, 'क्या देख रही है दुकानदार था चतुर, उसने कहा, 'ठाकुर! यह धोती लेना चाहती है, बची भी इस छापे की एक ही है।' जंगली बदन इस नागरिक प्रगल्भता पर लाल तो हो गया, पर बोला नहीं। गाला ने कहा, 'नहीं, नहीं मैं भला इसे लेकर क्या करूँगी।' मंगल ने कहा, 'स्त्रियों के लिए इससे पूर्ण वस्त्र और कोई हो ही नहीं सकता। कुरते के ऊपर से इसे पहन लिया जाए, तो यह अकेला सब काम दे सकता है।' बदन को मंगल का बोलना बुरा तो न लगा, पर वह गाला का मन रखने के लिए बोला, 'तो ले ले गाला।' गाला ने अल्हड़पन से कहा, 'अच्छा!' मंगल ने मोल ठीक किया। धोती लेकर गाला के सरल मुख पर एक बार कुतूहल की प्रसन्नता छा गयी। तीनों बात करते-करते उस छोटे से बाजार से बाहर आ गये। धूप कड़ी हो चली थी। मंगल ने कहा, 'मेरी कुटी पर ही विश्राम कीजिये न! धूप कम होने पर चले जाइयेगा। गाला ने कहा, 'हाँ बाबा, हम लोग पाठशाला भी देख लेंगे।' बदन ने सिर हिला दिया। मंगल के पीछे दोनों चलने लगे। बदन इस समय कुछ चिन्तित था। वह चुपचाप जब मंगल की पाठशाला में पहुँच गया, तब उसे एक आश्चर्यमय क्रोध हुआ। किन्तु वहाँ का दृश्य देखते ही उनका मन बदल गया। क्लास का समय हो गया था, मंगल के संकेत से एक बालक ने घंटा बजा दिया। पास ही खेलते हुए बालक दौड़ आये; अध्ययन आरम्भ हुआ। मंगल को यत्न-सहित उन बालकों को पढ़ाते देखकर गाला को एक तृप्ति हुई। बदन भीे अप्रसन्न न रह सका। उसने हँसकर कहा, 'भई, तुम पढ़ाते हो, तो अच्छा करते हो; पर यह पढ़ना किस काम का होगा मैं तुमसे कई बार कह चुका हूँ कि पढ़ने से, शिक्षा से, मनुष्य सुधरता है; पर मैं तो समझता हूँ-ये किसी काम के न रह जाएँगे। इतना परिश्रम करके तो जीने के लिए मनुष्य कोई भी काम कर सकता है।' 'बाबा! पढ़ाई सब कामों को सुधार करना सिखाती है। यह तो बड़ा अच्छा काम है, देखिये मंगल के त्याग और परिश्रम को!' गाला ने कहा। 'हाँ, तो यह बात अच्छी है।' कहकर बदन चुप हो गया। मंगल ने कहा, 'ठाकुर! मैं तो चाहता हूँ कि लड़कियों की भी एक पाठशाला हो जाती; पर उनके लिए स्त्री अध्यापिका की आवश्यकता होगी, और वह दुर्लभ है।' गाला जो यह दृश्य देखकर बहुत उत्साहित हो रही थी, बोली, 'बाबा! तुम कहते तो मैं ही लड़कियों को पढ़ाती।' बदन ने आश्चर्य से गाला की ओर देखा; पर वह कहती ही रही, 'जंगल में तो मेरा मन भी नहीं लगता। मैं बहुत विचार कर चुकी हूँ, मेरा उस खारी नदी के पहाड़ी अंचल से जीवन भर निभने का नहीं।' 'तो क्या तू मुझे छोड़कर...' कहते-कहते बदन का हृदय भर उठा, आँखें डबडबा आयीं 'और भी ऐसी वस्तुएँ हैं, जिन्हें मैं इस जीवन में छोड़ नहीं सकता। मैं समझता हूँ, उनसे छुड़ा लेने की तेरी भीतरी इच्छा है, क्यों?' गाला ने कहा, 'अच्छा तो घर चलकर इस पर फिर विचार किया जाएगा।' मंगल के सामने इस विवाद को बन्द कर देने के लिए अधीर थी। रूठने के स्वर में बदन ने कहा, 'तेरी ऐसी इच्छा है तो घर ही न चल।' यह बात कुछ कड़ी और अचानक बदन के मुँह से निकल पड़ी। मंगल जल के लिए इसी बीच से चला गया था, तो भी गाला बहुत घायल हो गयी। हथेलियों पर मुँह धरे हुए वह टपाटप आँसू गिराने लगी; पर न जाने क्यों, उस गूजर का मन अधिक कठिन हो गया था। सान्त्वना का एक शब्द भी न निकला। वह तब तक चुप रहा, जब तक मंगल ने आकर कुछ मिठाई और जल सामने नहीं रखा। मिठाई देखते ही बदन बोल उठा, 'मुझे यह नहीं चाहिए।' वह जल का लोटा उठाकर चुल्लू से पानी पी गया और उठ खड़ा हुआ, मंगल की ओर देखता हुआ बोला, 'कई मील जाना है, बूढ़ा आदमी हूँ तो चलता हूँ।' सीढ़ियाँ उतरने लगा। गाला से उसने चलने के लिए नहीं कहा। वह बैठी रही। क्षोभ से भरी हुई तड़प रही थी, पर ज्यों ही उसने देखा कि बदन टेकरी से उतर चुका, अब भी वह लौटकर नहीं देख रहा है, तब वह आँसू बहाती उठ खड़ी हुई। मंगल ने कहा, 'गाला, तुम इस समय बाबा के साथ जाओ, मैं आकर उन्हें समझा दूँगा। इसके लिए झगड़ना कोई अच्छी बात नहीं।'

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